स्वाधीनता आंदोलन में महिलाओं की भूमिका

स्वाधीनता आंदोलन की लड़ाई सिर्फ पुरुषों की हिस्सेदारी से फतह नहीं की गयी बल्कि इस महायज्ञ में महिलाओं की भूमिका भी उल्लेखनीय है। यह बात सिर्फ कहने भर के लिए नहीं है और न नाम गिनाने के लिए।
यहां प्रस्तुत है - महिलाओं की सार्थक भूमिका का एक आकलन।

विश्व के महान राष्ट्रों के आविर्भाव से पता चलता है कि आज़ादी के आन्दोलनों की शुरुआत और उन्हें शक्ति और सहयोग देने में महिलाओं का योगदान रहा है- भारत में भी ऐसा ही हुआ है।

भारत में महिलाओं को वैदिक काल से ही महत्वपूर्ण स्थान दिया जाता रहा है। मनु ने कहा है जहां महिलाओं को सम्मान मिलता है, वहां ईश्वर का वास होता है और जिन परिवारों में महिलाओं का अपमान होता है, वे परिवार बर्बाद हो जाते हैं। वैदिक काल में समाज में स्त्रियों का स्थान बहुत ऊंचा था और उन्हें हर क्षेत्र में पुरुषों का बराबर का साझीदार माना जाता था। मैत्रेयी, गार्गी, सती अनसूया और सीता की कथा किसे नहीं मालूम है।

रानी लक्ष्मी बाई

इस सिलसिले में सबसे पहला नाम जो मस्तिष्क में आता है वह महारानी लक्ष्मी बाई का है। पुरुषों का वस्त्र धारण कर उन्होंने ब्रिटिशों के विरुद्ध युद्ध में अपनी सेना का नेतृत्व किया। यहां तक कि उनके दुश्मन ने भी उनके साहस और बहादुरी की प्रशंसा की। उन्होंने बहादुरी से लड़ाई लडी- यद्यपि वे युद्ध में हार गयीं लेकिन उन्होंने आत्म समर्पण करने से इनकार कर दिया और दुश्मन से लड़ते हुए शहीद हो गयीं। उनके शानदार साहस ने विदेशी शासन के विरुद्ध संघर्ष में भारत के अनेक पुरुषों और महिलाओं को प्रेरणा दी।

बेगम हजरत महल

आजादी के संघर्ष में याद की जाने वाली दूसरी महिला थीं- अवध की बेगम बेगम हजरत महल। अंग्रेजों से लखनऊ को बचाने में उन्होंने सक्रिय भूमिका निभाई। यद्यपि वे एक रानी थी और ऐशों आराम की जिन्दगी की अभ्यस्त थीं - लेकिन अपने सैनिकों का उत्साह बढ़ाने के लिए स्वयं युद्ध के मैदान में उतरीं। बेगम हजरत महल ने जब तक संभव हो सका, अपनी पूरी ताकत से अंग्रेजों का मुकाबला किया। अंततः उन्हें हथियार डाल कर नेपाल में शरण लेनी पड़ी।

20वीं शताब्दी के उतरार्द्ध में स्वतंत्रता आंदोलन ने गति पकड़ी और महिलाएं आगे आईं ।

कस्तूरबागांधी

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की पत्नी कस्तूरबा गांधी ने आजादी के आंदोलन में कुछ अलग

कमला नेहरू

जब अधिकांश नेता जेल में थे - भारत की महिलाएं आगे आईं और सरकार के अत्याचार का सामना किया। उन दिनों कमला नेहरू ने बड़े साहस से काम लिया और इलाहाबाद में संगठन की जिम्मेदारी संभाली। उन्होंने अपना कर्तव्य इस

महात्मा गांधी के नेतृत्व में अनेक पुरुषों और महिलाओं ने अपना जीवन आजादी के संघर्ष के लिए समर्पित कर दिया इनमें से एक सरोजिनी नायडू थीं। 1879 में जन्मी सरोजनी नायडू की शिक्षा मद्रास और कैम्ब्रिज में हुयी थी। कम उम्र में ही उन्होंने देशभक्ति की अनेक ऐसी कविताएं लिखीं जिनसे लोगों को आजादी के लिए संघर्ष में भाग लेने की प्रेरणा मिली। उन्होंने एनी बेसेन्ट द्वारा शुरू किए गए होमरुल आंदोलन में हिस्सा लिया। राजनीति में यह उनका पहला कदम था। गोपाल कृष्ण गोखले के आह्वान पर वे 1915 में कांग्रेस में शामिल हो गयीं। लखनऊ सम्मेलन में उन्होंने अपने जोरदार भाषण में स्वराज्य की विचार धारा की जोरदार वकालत की। 1921 में उन्होंने महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन में हिस्सा लिया और आगे चल कर देश की आजादी के लिए काम किया। 1925 में वे कांग्रेस की अध्यक्ष चुनी गयीं। 1930 में महात्मा गांधी ने सविनय अवज्ञा आंदोलन चलाया जिसमें वह गांधीजी की प्रमुख सहयोगी रहीं। वह गांधीजी तथा अन्य नेताओं के साथ गिरतार कर लीं गयीं। 1931 में लंदन में गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने के लिए उन्हें गांधीजी के साथ आमंत्रित किया गया। यह सम्मेलन सफल नहीं हुआ। भारत लौटने पर वह फिर आजादी के संघर्ष में सक्रिय रूप से जुट गयीं और जेल गयीं।

1942 में गांधीजी द्वारा शुरू किया गए भारत छोड़ो आंदोलन में उन्होंने हिस्सा लिया और ब्रिटिश शासन का कोप भाजन बन कर एक बार फिर जेल गयीं। 1947 में भारत के आजाद होने पर उन्हें उत्तर प्रदेश का राज्यपाल बनाया गया। 1 मार्च 1947 को उनका निधन हुआ। वह दुनिया की महिलाओं की बहुत बड़ी हितैषी थीं। उन्होंने देश सेवा के लिए सभी वर्गों की महिलाओं को प्रेरणा दी।

उनकी पुत्री पद्मजा नायडु भी अपनी मां की तरह ही राष्ट्र के हितों के प्रति निष्ठावान थीं। 17 नवंबर 1900 में जन्मी पद्मजा नायडू पर अपनी देशभक्त मां का काफी असर था। 21 वर्ष की उम्र में वह राष्ट्रीय क्षितिज पर उभरीं और हैदराबाद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की संयुक्त संस्थापिका बन गयीं। उनकी राजनीतिक पृष्ठभूमि की और उन्होंने लोगों खादी का प्रचार करते हुए विदेशी सामान का बहिष्कार करने की प्रेरणा दीं। 1942 में गांधी जी के भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लेने के लिए उन्हें जेल जाना पड़ा। आजादी के बाद वह संसद की सदस्य बनीं और बाद में पश्चिम बंगाल की राज्यपाल बनायी गयीं। लगभग 50 वर्ष के सार्वजनिक जीवन में वे रेडक्रास से भी जुड़ हुयी थीं। 2 मई 1975 में उनका देहांत हो गया। राष्ट्र के लिए उनकी सेवाएं खासतौर से उनका माननीय दृष्टिकोण हमेशा याद किया जाएगा।

विजय लक्ष्मी पंडित

देश के लिए नेहरू परिवार ने जो महान बलिदान और योगदान किया है, राष्ट्र उसे हमेशा याद रखेगा। स्वतंत्रता आंदोलन में पंडित जवाहर लाल की बहन विजय लक्ष्मी पंडित के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। 15 अगस्त 1900 में उनका जन्म हुआ था। उनकी शिक्षा-दीक्षा मुख्य रूप से घर में ही हुयी। 1936 और 1946 में वह उत्तर प्रदेश विधान सभा के लिए चुनी गयीं और मंत्री बनायी गयीं। मंत्री स्तर का दर्जा पाने वाली भारत की वह प्रथम महिला थीं। 1932, 1941 और 1942 में सविनय अवज्ञा आंदोलन में भाग लेने के लिए उन्हें जेल की सजा हुयी। आजादी के बाद भी उन्होंने देश सेवा जारी रखी। संयुक्त राष्ट्र की अध्यक्ष बनने वाली वह विश्व की पहली महिला थीं। वे राज्यपाल और राजदूत जैसे कई महत्वपूर्ण पदों पर रहीं।

सुचेता कृपलानी

स्वतंत्रता आंदोलन में श्रीमती सुचेता कृपलानी के योगदान को भी हमेशा याद किया जाएगा। 1908 में जन्मी सुचेता जी की शिक्षा लाहौर और दिल्ली में हुई थी। आज़ादी के आंदोलन में भाग लेने के लिए उन्हें जेल की सजा हुई। 1946 में वह संविधान सभा की सदस्य चुनी गई। 1958 से 1960 तक वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की महासचिव थी। 1963 से 1967 तक वह उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रहीं। 1 दिसंबर 1974 को उनका निधन हो गया। अपने शोक संदेश में श्रीमती इंदिरा गांधी ने कहा कि ‘‘सुचेता जी ऐसे दुर्लभ साहस और चरित्र की महिला थीं, जिनसे भारतीय महिलाओं को सम्मान मिलता है।‘‘

लीलाबती मुंशी

स्वतंत्रता आंदोलन में श्रीमती लीलावती मुंशी का योगदान कम नहीं था। आजादी के संघर्ष में भाग लेने के लिए वे तीन बार जेल गयीं। अपने लेखन और भाषणों से उन्होंने अनेक लोगों को प्रेरणा दीं।

इनके अलावा ऐसे अनेक कवि, दार्शनिक और लेखक थे जिन्होंने अपनी कविताओं और लेखन आदि से लोगों को स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने के लिए प्रेरित किया। उनमें तारु दत्त, स्वरन्स कुमारी घोषाल, सरला देवी चैधरी और कामिनी बाई प्रमुख हैं।

विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत को इंदिरा गांधी के रूप में पहली महिला प्रधानमंत्री देने का श्रेय प्राप्त है। 70 करोड़ भारतीयों के प्रधानमंत्री के रूप में इंदिरा गांधी सबसे सफल और लोकप्रिय रही हैं, इसके पहले आजादी के आंदोलन में भी उन्होंने महत्वपूर्ण योगदान किया था। 19 नवम्बर 1917 में इलाहाबाद के आनंद भवन में उनका जन्म हुआ। उनकी शिक्षा इलाहाबाद, पूना, बम्बई, विश्वभारती और आक्सफोर्ड में समर विले कालेज में हुयी थी। अपने पिता जवाहरलाल नेहरू के लिखे पत्रों के माध्यम से उन्होंने विश्व इतिहास का ज्ञान प्राप्त किया। 1921 में चार वर्ष की उम्र में पहली बार उन्होंने कांग्रेस के अधिवेशन में हिस्सा लिया। 12 वर्ष की उम्र में उन्होंने लड़के और लड़कियों का एक चरखा संघ और वानर सेना का गठन किया। इसका उद्देश्य सविनय अवज्ञा आंदोलन में मदद करना और एक ठोस आधार के साथ उसे बढ़ावा देना था। उन्होंने श्रीयुत कृष्ण मेनन के नेतृत्व में इंडियन लीग में सक्रिय रूप से हिस्सा लिया। 1938 में वह कांग्रेस की सदस्य बनीं और स्वतंत्रता आंदोलन से सक्रिय रूप से जुड़ी रहीं। 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान शादी के तुरंत बाद उन्हें अपने पति के साथ गिरतार करके नैनी जेल भेज दिया गया। वे गांवों में खासतौर से महिलाओं से सम्पर्क कायम करने में बराबर सक्रिय रहीं। 1947 में दिल्ली के दंगा पीड़ित क्षेत्रों में गांधी जी के निर्देशों के अनुसार उन्होंने काम किया। आजादी के बाद वे पंडित नेहरू की सबसे निकट राजनीतिक सहयोगी बनी।

इंदिरा गांधी

इंदिरा जी नियति की बालिका थी। हाल के इतिहास में ऐसे बहुत ही कम लोग हुए होंगे जिन्हें सत्ता से कोई मोह न होने के बावजूद इतना उत्तरदायित्व और अधिकार सौंपा गया हो जितना इंदिरा गांधी के कंधों पर सौंपा गया।

वह जिस किसी भी ऊंचे पद पर रहीं, उसके लिए खुद कोई प्रयास नहीं किया बल्कि वह पद उन्हें थोप दिया गया। स्वतंत्रता आंदोलन में उनकी भूमिका और उनके द्वारा उठाए गए कदमों तथा उनके 20 सूत्रीय कार्यक्रम भारत के इतिहास में हमेशा याद किया जाएगा।

इंदिरा गांधी अब हमारे बीच नहीं हैं लेकिन अब हमारे बीच एक युवा और उत्साही प्रधानमंत्री राजीव गांधी हैं जिन्होंने अपने पहले नीति वक्तव्य में वादा किया है कि वे इंदिरा जी की नीतियों से अलग नहीं हटेंगें।

इंदिरा जी ने देशवासियों खासतौर से दबे लोगों की सेवा करने के लिए आंदोलन शुरू करने आह्वान किया था। यह एक महान आंदोलन है जिससे हमारे देश का भाग्य बदला जा सकता है। हम यह कह सकते हैं कि अव्यवस्था और विवाद, घृणा और मतभेद, विद्रोह और संघर्ष के सभी दिनों में महिलाओं ने भारत के वर्तमान स्वरूप को बनाने में योगदान किया है।

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